Lekhika Ranchi

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काजर की कोठरी--आचार्य देवकीनंदन खत्री


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जिस समय लालसिंह सरला की कोठरी में पहुँचा और उसने वहाँ की अवस्था देखी, घबड़ा गया और खून के छींटों पर निगाह पड़ते ही उसकी आँखों से आँसू की नदी बह चली। उसे थोड़ी देर तक तो तनोबदन की सुध न रही फिर बड़ी कोशिश से उसने अपने को सँभाला और तहकीकात करने लगा। कई औरतों और लौंडियों के उसने इजहार लिए मगर इससे ज्यादे पता कुछ भी न लगा कि सरला यकायक अपनी कोठरी में से ही कहीं गायब हो गई। उसे किसी ने भी कोठरी के बाहर पैर रखते या कहीं जाते नहीं देखा। जब लालसिंह ने खून के निशान और छींटों पर ध्यान दिया तो उसे बड़ा ही आश्चर्य हुआ क्योंकि खून के जो कुछ छीटे या निशान थे सब कोठरी के अंदर ही थे, चौकठ के बाहर इस किस्म की कोई बात न थी। वह अपनी स्त्री को होश में लाने और दिलासा देने का बंदोबस्त करके बाहर अपने कमरे में चला आया, जहाँ से उसी समय अपने समधी कल्याणसिंह के पास एक आदमी रवाना करके उसकी जुबानी अपने यहाँ का सब हाल उसने कहला भेजा। .

रात-भर रंज और गम में बीत गया। सरला को खोज निकालने के लिए किसी ने कोई बात उठा न रक्खी, नतीजा कुछ भी न निकला। दूसरे दिन दो पहर बीते वह आदमी भी लौट आया जो कल्याणसिंह के पास भेजा गया था और उसने वहाँ का सब हाल लालसिंह से कहा, जिसे सुनते ही लालसिंह पागल की तरह हो गया और उसके दिल में कोई नई बात पैदा हो गई, मगर जिस समय उस आदमी ने यह कहा कि ‘खून-खराबे का सब हाल मालूम हो जाने पर भी हरनंदनसिंह को किसी तरह का रंज न हुआ और वह एक रंडी के पास, जिसका नाम बाँदी है और जो नाचने के लिए उसके यहाँ गई हुई थी, जा बैठा और हँसी-दिल्लगी में अपना समय बिताने लगा, यहाँ तक कि उसके बाप ने बुलाने के लिए कई आदमी भेजे मगर वह बाँदी के पास से न उठा, आखिर जब स्वयं रामसिंह गए तो उसे जबरदस्ती उठा लाए और लानत-मलामत करने लगें——’ तो लालसिंह की हालत बदल गई। उसके लिए यह खबर बड़ी ही दुखदाई थी। यद्यपि वह सरला के गम में अधमुआ हो रहा था तथापि इस खबर ने उसके बदन में बिजली पैदा कर दी। कहाँ तो वह दीवार के सहारे सुस्त बैठा हुआ सब बातें सुन रहा और आँखों से आँसू की बूँदें गिरा रहा था, कहाँ यकायक सँभलकर बैठ गया, क्रोध से बदन काँपने लगा, आँसू की तरी एकदम गायब होकर आँखों ने अंगारों की सूरत पैदा की और साथ ही इसके वह लंबी-लंबी साँसें लेने लगा।

उस समय लालसिंह के पास उसके चारों भतीजे–राजाजी, पारसनाथ, धरनीधर और दौलतसिंह तथा और भी कई आदमी जिन्हें वह अपना हिती समझता था बैठे हुए थे और सभों की सूरत से उदासी और हमदर्दी झलक रही थी। हरनंदन और बाँदीवाली खबर सुनकर जिस समय लालसिंह क्रोध में आकर चुटीले साँप की तरह फुँकारने लगा उस समय उन लोगों ने भी नमक-मिर्च लगाना आरंभ कर दिया।

एक: देखने-सुनने और बातचीत से तो हरनंदन बड़ा नेक और बुद्धिमान मालूम पड़ता था।

दूसरा: मनुष्य का चित्त अंदर-बाहर से एक नहीं हो सकता।

तीसरा: मुझे तो पहिले ही से उसके चाल-चलन पर शक था, मगर लोगों में उसकी तारीफ इतनी ज्यादे फैली हुई थी कि मैं अपने मुँह से उसके खिलाफ कुछ कहने का साहस नहीं कर सकता था।

चौथा: बुद्धिमान ऐयाशों का यही ढंग रहता है।

पाँचवाँ: असल तो यों है कि हरनंदन को अपनी बुद्धिमानी पर घमंड भी हद्द से ज्यादे है। .

छठा: निःसंदेह ऐसा ही है। उसने तो केवल हमारे लालसिंह जी को धोखा देने के लिए यह रूपक बाँधा हुआ था, नहीं तो वह पक्का बदमाश और—

पारसनाथ: (लालसिंह का भतीजा) अजी मैं एक दफे (लालसिंह की तरफ इशारा करके) चाचा साहब से कह भी चुका था कि हरनंदन को जैसा आप समझे हुए हैं वैसा नहीं है, मगर आपने मेरी बातों पर कुछ ध्यान ही नहीं दिया उल्टे मुझी को उल्लू बनाने लगे।

लालसिंह: वास्तव में मैं उसे बहुत नेक आदमी समझता था।

पारसनाथ: मैं तो आज भी डंके की चोट कह सकता हूँ कि बेचारी सरला का खून (अगर वास्तव में वह मारी गई है तो) हरनंदन ही की बदौलत हुआ है। अगर मेरी मदद की जाए तो मैं इसको साबित करके दिखा भी सकता हूँ।

लालसिंह: क्या तुम इस बात को साबित कर सकते हो?

पारसनाथ: बेशक!

लालसिंह: तो क्या सरला के मारे जाने में भी तुम्हें कोई शक है?

पारसनाथ: जी हाँ, पूरा-पूरा शक है! मेरा दिल गवाही देता है कि यदि उद्योग के साथ पता लगाया जाएगा तो सरला मिल जाएगी।

लालसिंह: क्या यह काम तुम्हारे किए हो सकता है?

पारसनाथ: बेशक, मगर खर्च बहुत ज्यादे करना होगा !

लालसिंह: यद्यपि मैं तुम पर विश्वास और भरोसा नहीं रखता पर इस बारे में अंधा और बेवकूफ बनकर भी तुम्हारी मार्फत खर्च करने को तैयार हूँ। मगर तुम यह बताओ कि हरनंदन सरला के साथ दुश्मनी करके अपना नुकसान कैसे कर सकता है!

पारसनाथ: इसका बहुत बड़ा सबब है जिसके लिए हरनंदन ने ऐसा किया, वह बड़े आन-बान का आदमी है।

लालसिंह: आखिर वह सबब क्या है सो साफ-साफ क्यों नहीं कहते?

पारसनाथ: (इधर-उधर देखकर) मैं किसी समय एकांत में आपसे कहूँगा।

लालसिंह: अभी इसी जगह एकांत हो जाता है, जो कुछ कहना है तुरंत कहो, क्या तुम नहीं जानते कि इस समय मेरे दिल पर क्या बीत रही है?

इतना कहकर लालसिंह ने औरों की तरफ देखा और उसी समय वे लोग उठकर थोड़ी देर के लिए दूसरे कमरे में चले गए। उस समय पुन: पूछे जाने पर पारसनाथ ने कहा, ”हरनंदन अपनी बुद्धि और विद्या के आगे रुपए की कुछ भी कदर नहीं समझता। वह आपके रुपए का लालची नहीं है बल्कि अपनी तबीयत का बादशाह है। उसका बाप बेशक आपकी दौलत अपनी किया चाहता है मगर हरनंदन को सरला के साथ ब्याह करना मंजूर न था क्योंकि वह अपना दिल किसी और ही को दे चुका है जो एक गरीब की लड़की है और जिसके साथ शादी करना उसका बाप पसंद नहीं करता। इसीलिए उसने इस ढंग से सरला को बदनाम करके पीछा छुड़ाना चाहा है। इस संबंध में और भी बहुत-सी बातें हैं, जिन्हें मैं आपके सामने मुँह से नहीं निकाल सकता क्योंकि आप बड़े हैं और बातें छोटी हैं।”

लालसिंह: (ताज्जुब के साथ) क्या तुम ये सब बातें सच कह रहे हो?

पारसनाथ: मेरी बातों में रत्ती बराबर भी झूठ नहीं है। मैं छाती ठोक के दावे के साथ कह सकता हूँ कि यदि आप खर्च की पूरी -पूरी मदद देंगे तो मैं थोड़े ही दिनों में ये सब बातें सिद्ध करके दिखा दूँगा।

लालसिंह: इस बारे में क्या खर्च पड़ेगा?

पारसनाथ: दस हजार रुपए। अगर जीती-जागती सरला का भी पता लग गया और उसे मैं छुड़ाकर अपने घर ला सका तो पच्चीस हजार रुपए से कम खर्च नहीं पड़ेगा।

लालसिंह: (अपनी छाती पर हाथ रखके) मुझे मंजूर है।

पारसनाथ: तो मैं भी फिर अपनी जान हथेली पर रखकर उद्योग करने के लिए तैयार हूँ।

लालसिंह: अच्छा अब उन लोगों को बुला लेना चाहिए जो दूसरे कमरे में चले गए हैं।

पारसनाथ: जो आज्ञा मगर ये बातें सिवाय मेरे और आपके किसी तीसरे को मालूम न हों।

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